भागवत प्रतिपाद्य विषय


श्रीमद्भागवत के प्रतिपाद्य विषय:-

श्रील शुकदेवजी ( महामुनि परमहंस) व श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी की निष्ठानुसार श्रीमद्भागवत महापुराण के तीन प्रतिपाद्य विषय है:-

  • सम्बन्ध तत्त्व
  • अभिधेय तत्त्व
  • प्रयोजन तत्त्व

सम्बन्ध तत्त्व :- तटस्था शक्ति - नित्यबद्ध व नित्यमुक्त जीव, स्वरूप शक्ति, माया शक्ति व काल से जिस तत्त्व का नित्य-अविच्छेद्य सम्बन्ध है, उसे सम्बन्ध तत्त्व कहते है ।
श्रीमद्भागवत के अनुसार अद्वय ज्ञान तत्त्व ही सम्बन्ध तत्त्व हैं । श्रीमद्भागवत (1-2-11) में श्री सूत जी ने श्री शौनकादि मुनियों के प्रति कहा - वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञान मद्वयम । ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ।। ' उन परमसत्य परमेश्वर को ही तत्त्ववेत्ता जन अद्वयज्ञान तत्त्व कहते हैं और वही अद्वयज्ञान तत्त्व उपासकों की योग्यता के तारतम्य से ब्रह्म, परमात्मा व भगवान् के रूप में अनुभूत होता है ।' अर्थात अद्वयज्ञान तत्त्व ही परमसत्य परमेश्वर श्रीकृष्ण हैं, जिन्हें स्वयं भगवान् भी कहा जाता है । स्वयं भगवान् के तीन भिन्नाभिन्न स्वरूप हैं -ब्रह्म-परमात्मा-भगवान् । अतः स्वयं भगवान् ,भगवान्,परमात्मा व ब्रह्म -ये चारों स्वरूप ही सम्बन्ध तत्त्व के अन्तर्गत हैं ।

  • ब्रह्म :- परमेश्वर श्रीकृष्ण की अंगकान्ति निर्विशेष व निराकार ज्योति पुञ्ज के सदृश होती है, जिसमें शक्ति की अभिव्यक्ति नहीं होती ; ज्ञान मार्ग के साधक इन्हीं ब्रह्म को सम्बन्ध तत्त्व मानते है।
  • परमात्मा :- परमेश्वर श्रीकृष्ण के स्वांश रूप और मायानियन्ता अन्तर्यामी स्वरूप को परमात्मा कहते हैं। यह रूप सविशेष होता है और जड़-भौतिक जगत का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व व कार्यभार इन्हीं पर रहता है । योगमार्ग के साधक इन्हीं परमात्मा को सम्बन्ध तत्त्व स्वीकार करते हैं। परमात्मा स्वरूप तीन रूपों में नित्य विद्यमान है - करणोदकशायी श्री महाविष्णु , गर्भोदकशायी श्रीविष्णु और क्षीरोदकशायी श्रीविष्णु । अनन्त कोटि मूल स्रष्टा , समष्टि ब्रह्मांड अन्तर्यामी और प्रथम पुरुषावतार करणोदकशायी श्री महाविष्णु के नाम से जाना जाता है। व्यष्टि ब्रह्माण्ड के अन्तर्यामी, त्रिदेवों सहित ब्रहाण्डान्तर्गत समस्त अवतारों के अक्षय स्रोत और द्वितीय पुरुषावतार को गर्भोदकशायी श्रीविष्णु के नाम से जाना जाता है । व्यष्टि जीव के अन्तर्यामी ,ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता और तृतीय पुरुषावतार को क्षीरोदकशायी श्रीविष्णु कहते हैं।
  • भगवान् :- परमेश्वर श्रीकृष्ण के विलास रूप परव्योमाधिपति वैकुंठनाथ श्री नारायण को भगवान् नाम से जाना जाता है । वैधी -भक्ति मार्ग के साधक इन्हीं भगवान् श्री नारायण को सम्बन्ध तत्त्व कहते हैं ।
  • स्वयं भगवान् :- ब्रह्म , परमात्मा व भगवान् स्वरूपों के मूल कारण और साक्षात् परमब्रह्म-परमसत्य-परमेश्वर श्रीकृष्ण को स्वयं भगवान् के नाम से जाना जाता है। ब्रजभक्ति या रागानुगा भक्तिमार्ग के साधक इन्हीं स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण को सम्बन्ध तत्त्व स्वीकार करते हैं। श्रीमद्भागवत के अर्थ निर्णयानुसार एकमात्र स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ही सम्बन्ध तत्त्व है। ज्ञानमार्ग, योगमार्ग व वैधीभक्ति मार्ग के साधकों के अनुसार भले ही ब्रह्म, परमात्मा व भगवान् सम्बन्ध तत्त्व हो, किन्तु रागानुगा भक्ति मार्ग के पथिकों के प्राणधन श्रीमद्भागवतानुसार तो श्रीकृष्ण ही सम्बन्ध तत्त्व हैं ।

अभिधेय तत्त्व :- सम्बन्ध तत्त्व प्राप्ति के साधन को अभिधेय तत्त्व कहते हैं। ज्ञानियों का अभिधेय तत्त्व निर्विशेष ब्रह्म का श्रवण, मनन व निदिध्यासन ; योगियों का अभिधेय तत्त्व अष्टांग योग और भक्तो का अभिधेय तत्त्व श्रवण-कीर्तन-स्मरण आदि नौ अंग वाली भक्ति है। श्रीमद्भागवत के अनुसार भक्ति ही अभिधेय तत्त्व है। वह भक्ति भी वैधी और रागानुगा भेद से दो प्रकार की होती है । वैधी भक्ति का लक्ष्य वैकुंठनाथ श्री नारायण होते हैं और रागानुगा भक्ति के लक्ष्य गोलोकनाथ श्रीकृष्ण होते हैं।

प्रयोजन तत्त्व:- जिस उद्देश्य को लेकर सम्बन्ध की उपासना की जाती है , उसे प्रयोजन तत्त्व कहते हैं। ज्ञानमार्ग व योगमार्ग के साधकों का प्रयोजन तत्त्व सायुज्य मुक्ति;वैधी भक्तिमार्ग के साधकों का प्रयोजन तत्त्व वैकुण्ठ में सालोक्य, सारूप्य, सार्ष्टि व सामीप्य मुक्ति और वैधभावोत्थ कृष्णप्रेम होता है । व्रज भक्ति या रागानुगा भक्तिमार्ग के साधकों का प्रयोजन तत्त्व श्रीगोलोक में नित्यलीला प्रवेश एवं रागानुगाभावोत्थ कृष्णप्रेम होता है । श्रीमद्भागवत ग्रंथ के प्रतिपाद्य विषय एवं सार सर्वस्व यही सम्बन्ध -अभिधेय-प्रयोजन नामक तीन तत्त्व हैं ।

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